इतिहास और राजनीति >> प्राचीन भारत का इतिहास प्राचीन भारत का इतिहासरमा शंकर
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प्रस्तुत ग्रन्थ में मुख्य रूप से भारत के राजनैतिक इतिहास का वर्णन किया गया है। इसमें साम्राज्य के उत्थान, ह्रास और पतन का तथा उसके बाद के इतिहास का परिचय मिलता है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत ग्रन्थ में मुख्य रूप से भारत के राजनीतिक इतिहास का वर्णन किया
गया है। इसमें साम्राज्य के उत्थान, ह्रास और पतन का तथा उसके बाद के
इतिहास का परिचय मिलता है।
इसमें हर्षवर्धन के बाद के इतिहास के बारे में संपूर्ण ऐतिहासिक दृष्टि बदल गई है। दक्षिण के चालुक्यों और पल्लवों के कार्य को विशेष महत्त्व दिया गया है, जिन्होंने उत्तर भारत के गुप्तों के अधूरे कार्य को दक्षिण भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करके पूरा किया। इस प्रकार तीन विभिन्न क्षेत्रीय इकाइयों की राजनीतिक एकता को ध्यान में रखा गया है। इसके उपरान्त सांस्कृतिक क्षेत्र में जो परिवर्तन आये, उनकी समीक्षा की गई है।
अध्याय 15-22 में भारतीय इतिहास के ‘स्वर्ण युग’ की चर्चा है। इस काल में भारत का विकास सर्वोच्च शिखर पर था। इस काल की विभिन्न कलात्मक उपलब्धियों को प्रदर्शित करते हुये 43 चित्र भी दिये गये हैं।
इसमें हर्षवर्धन के बाद के इतिहास के बारे में संपूर्ण ऐतिहासिक दृष्टि बदल गई है। दक्षिण के चालुक्यों और पल्लवों के कार्य को विशेष महत्त्व दिया गया है, जिन्होंने उत्तर भारत के गुप्तों के अधूरे कार्य को दक्षिण भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करके पूरा किया। इस प्रकार तीन विभिन्न क्षेत्रीय इकाइयों की राजनीतिक एकता को ध्यान में रखा गया है। इसके उपरान्त सांस्कृतिक क्षेत्र में जो परिवर्तन आये, उनकी समीक्षा की गई है।
अध्याय 15-22 में भारतीय इतिहास के ‘स्वर्ण युग’ की चर्चा है। इस काल में भारत का विकास सर्वोच्च शिखर पर था। इस काल की विभिन्न कलात्मक उपलब्धियों को प्रदर्शित करते हुये 43 चित्र भी दिये गये हैं।
के० ए० नीलकण्ड शास्त्री
प्रस्तुत ग्रन्थ में इतिहास के परम विद्वान प्रो० नीलकण्ठ शास्त्री ने
400- 175 ईं० पू० के युग में घटनाओं, जैसे भारत के राजनीतिक आर्थिक और
कलात्मक परिवर्तन, के जीवंत चित्र प्रस्तुत किए हैं। साथ ही
नंद-मौर्ययुगीन राज्य-व्यवस्था, उद्योग, कला, धर्म, भाषा और
साहित्य-सम्बन्धी विषय अत्यंत रोचक एंव तथ्य रूप में सक्षम आते हैं।
नंद-मौर्य- युगीन भारत के लिए यह अनुपम ग्रंथ है।
प्रस्तावना
प्राचीन धूमिल अतीत से लेकर मुस्लिम शासन की स्थापना तक भारत के इतिहास,
संस्थाओं तथा संस्कृति का संक्षिप्त एवं सूक्ष्म विवेचन इस पुस्तक का
मुख्य उद्देश्य है। इसका प्रणयन विशिष्ट प्रकार के पाठकों की आवश्यकता
पूर्ति का ध्यान रखकर नहीं हुआ है प्रत्युत इसका प्रधान लक्ष्य यही है कि
विद्यार्थियों, विद्वानों या ऐसे अन्य व्यक्तियों के अध्ययन में, जिन्हें
प्राचीन भारत के इतिहास के प्रति रुचि और अनुराग है, यह ग्रन्थ उपयोगी
सिद्ध हो सके।
भारतीय इतिहास-निरुपण का मेरा और यह प्रयास विभिन्न दृष्टिकोण रखनेवाले इन सभी वर्गों के रुचि-संवर्द्धन तथा उनकी आवश्यकता की पूर्ति में किस सीमा तक सफल और सहायक हो सका है इसका निर्णय योग्य आलोचक ही कर सकते हैं। यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है कि प्रस्तुत पुस्तिका में केवल इतिहास के तथ्यों के शुष्क संकलन अथवा उसकी गूढ़ समस्याओं के समाधान वा विश्लेषण से बचने का यथाशक्ति प्रयत्न तो किया ही गया है
इसमें प्राचीन भारत के दीर्घकालीन तथा आकर्षण इतिहास का साधारण दर्शन मात्र ही न रहे। मैंने साहित्य, अभिलेख एवं मुद्रा सम्बन्धी सभी प्राप्त आधारों के समुचित उपयोग के अतिरिक्त उसे विभिन्न काल एवं विषयों से सम्बन्धित आधुनिक अन्वेषणों के मान्य निष्कर्षों से सम्बद्ध करने का भरपूर प्रयत्न किया है। ऐतिहासिक सत्य तथा वैज्ञानिक शुद्धता के निमित्त सभी उपलब्ध साधनों का इस ग्रन्थ में आलोचनात्क और गम्भीर विवेचन ही नहीं किया गया है किन्तु भारत के विविधतापूर्ण इतिहास के किसी अंग-विशेष को अनावश्यक महत्व देने अथवा निन्दा करने की नीति सर्वथा बहिस्कार भी किया गया है मेरी यह दृढ़ धारणा है कि इतिहासकार के लिए इस प्रकार का पक्षपातपूर्ण व्यवहार अशोभनीय है, क्योंकि न तो वह आदर्शों का प्रचारक है और न महत्वकांक्षी राजाओं के वीर कृत्यों का प्रशस्तिकार है। उनके लिए जहाँ तक सम्भव हो सके वस्तुगत दृष्टिकोण का पोषण और प्रतिपादन ही अपेक्षित है।
ऐतिहासिक सामग्री के वास्तविक वर्णन में लेखक की आत्मझलक अथवा किसी प्रकार की विकृति या सजावट सर्वथा अवांछनीय है। इसके अतिरिक्त विचारों में दृढ़ता के स्थान पर कुछ लचक भी उचित है, क्योंकि प्राचीन भारत की अनेक घटनायें अब तक अन्धकार के गर्भ में हैं, और वे सामग्री उपलब्ध है वह केवल अनिश्चित एवं अधूरी ही नहीं प्रयुक्त यदा-कदा परस्परविरोधी भी है। ऐसी स्थिति में कुछ सम्राटों की ऐतिहासिकता तक विवादग्रस्त एवं सन्देहात्मक है। हमारा यह संशयपूर्ण दृष्टिकोण स्वाभाविक ही है हमारे पूर्वज भी इससे पूर्णतः मुक्त नहीं थे।
प्रसंगवशात् विष्णुपुराण के एक कथन का साक्ष्य देना असंगत न होना- ‘‘मैंने इस इतिहास का प्रकरण किया। भविष्य में इन राजाओं का अस्तित्व विवादग्रस्त होगा जैसा कि आज राम तथा अन्य दूसरे महान् शासकों का अस्तित्व तक भी सन्देहात्मक हो गया है। बड़े-बड़े सम्राट भी, जो सोचते थे या सोचते हैं कि ‘भारतवर्ष’ मेरा है’, समय के प्रवाह या गर्त में केवल कहानी-मात्र रह जाते हैं। ऐसे साम्राज्यों को धिक्कार है, सम्राट राघव के साम्राज्य को धिक्कार है।’’
प्रस्तुत ग्रन्थ के लिखने का विचार कुछ वर्षों पहले उदय हुआ परन्तु कतिपय कारणों वश, जिनका उल्लेख यहाँ अनावश्यक है, इसकी पूर्ति के लिए न हो सकी। आज भी मैं न तो बृहत्तर भारत पर ही और न पूर्वमध्यकालीन भारतीय इतिहास की प्रमुख विशेषताओं पर ही कोई अध्याय लिख सका हूँ। मुझे आशा है कि अगले संस्करण में इन दोनों अध्यायों की कमी पूरी हो सकेगी। मुद्रण-सामग्री के मूल-वृद्धि के कारण मैं इस पुस्तक में किसी प्रकार के चित्र भी न दे सका।
मैं प्राचीन भारत के अपने पूर्ववर्ती इतिहास-लेखकों का अत्यन्त आभारी हूँ। मैंने उनके ग्रन्थों का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया है, और इसका हिन्दी रूप कई मित्रों के प्रोत्साहन का फल है। इसलिए मैं उनका कृतज्ञ हूँ। मैं पुत्री कुमारी हेमप्रभा त्रिपाठी तथा पुत्र गिरिजाशंकर त्रिपाठी को भी इसके निर्माण में सहायता देने के हेतु धन्यवाद देता हूँ।
यद्यपि इस पुस्तक में प्रत्येक विषय की सरल, सुबोध और संक्षेपतः व्यापक बनाने की पूरी चेष्टा की गई है तथापि पर्याप्त तत्परता पर भी यदि पाठकों की सूक्ष्म दृष्टि में किसी प्रकार की त्रुटि दिखलाई पड़े तो मैं उसका सहर्ष स्वागत करूँगा। प्रतिपादित विषय अत्यन्त एवं गम्भीर है। अतः इस ग्रन्थ की रचना के समय मुझे महाकवि कालिदास का प्रसिद्ध श्लोक प्रायः स्मरण आता हैः
भारतीय इतिहास-निरुपण का मेरा और यह प्रयास विभिन्न दृष्टिकोण रखनेवाले इन सभी वर्गों के रुचि-संवर्द्धन तथा उनकी आवश्यकता की पूर्ति में किस सीमा तक सफल और सहायक हो सका है इसका निर्णय योग्य आलोचक ही कर सकते हैं। यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है कि प्रस्तुत पुस्तिका में केवल इतिहास के तथ्यों के शुष्क संकलन अथवा उसकी गूढ़ समस्याओं के समाधान वा विश्लेषण से बचने का यथाशक्ति प्रयत्न तो किया ही गया है
इसमें प्राचीन भारत के दीर्घकालीन तथा आकर्षण इतिहास का साधारण दर्शन मात्र ही न रहे। मैंने साहित्य, अभिलेख एवं मुद्रा सम्बन्धी सभी प्राप्त आधारों के समुचित उपयोग के अतिरिक्त उसे विभिन्न काल एवं विषयों से सम्बन्धित आधुनिक अन्वेषणों के मान्य निष्कर्षों से सम्बद्ध करने का भरपूर प्रयत्न किया है। ऐतिहासिक सत्य तथा वैज्ञानिक शुद्धता के निमित्त सभी उपलब्ध साधनों का इस ग्रन्थ में आलोचनात्क और गम्भीर विवेचन ही नहीं किया गया है किन्तु भारत के विविधतापूर्ण इतिहास के किसी अंग-विशेष को अनावश्यक महत्व देने अथवा निन्दा करने की नीति सर्वथा बहिस्कार भी किया गया है मेरी यह दृढ़ धारणा है कि इतिहासकार के लिए इस प्रकार का पक्षपातपूर्ण व्यवहार अशोभनीय है, क्योंकि न तो वह आदर्शों का प्रचारक है और न महत्वकांक्षी राजाओं के वीर कृत्यों का प्रशस्तिकार है। उनके लिए जहाँ तक सम्भव हो सके वस्तुगत दृष्टिकोण का पोषण और प्रतिपादन ही अपेक्षित है।
ऐतिहासिक सामग्री के वास्तविक वर्णन में लेखक की आत्मझलक अथवा किसी प्रकार की विकृति या सजावट सर्वथा अवांछनीय है। इसके अतिरिक्त विचारों में दृढ़ता के स्थान पर कुछ लचक भी उचित है, क्योंकि प्राचीन भारत की अनेक घटनायें अब तक अन्धकार के गर्भ में हैं, और वे सामग्री उपलब्ध है वह केवल अनिश्चित एवं अधूरी ही नहीं प्रयुक्त यदा-कदा परस्परविरोधी भी है। ऐसी स्थिति में कुछ सम्राटों की ऐतिहासिकता तक विवादग्रस्त एवं सन्देहात्मक है। हमारा यह संशयपूर्ण दृष्टिकोण स्वाभाविक ही है हमारे पूर्वज भी इससे पूर्णतः मुक्त नहीं थे।
प्रसंगवशात् विष्णुपुराण के एक कथन का साक्ष्य देना असंगत न होना- ‘‘मैंने इस इतिहास का प्रकरण किया। भविष्य में इन राजाओं का अस्तित्व विवादग्रस्त होगा जैसा कि आज राम तथा अन्य दूसरे महान् शासकों का अस्तित्व तक भी सन्देहात्मक हो गया है। बड़े-बड़े सम्राट भी, जो सोचते थे या सोचते हैं कि ‘भारतवर्ष’ मेरा है’, समय के प्रवाह या गर्त में केवल कहानी-मात्र रह जाते हैं। ऐसे साम्राज्यों को धिक्कार है, सम्राट राघव के साम्राज्य को धिक्कार है।’’
प्रस्तुत ग्रन्थ के लिखने का विचार कुछ वर्षों पहले उदय हुआ परन्तु कतिपय कारणों वश, जिनका उल्लेख यहाँ अनावश्यक है, इसकी पूर्ति के लिए न हो सकी। आज भी मैं न तो बृहत्तर भारत पर ही और न पूर्वमध्यकालीन भारतीय इतिहास की प्रमुख विशेषताओं पर ही कोई अध्याय लिख सका हूँ। मुझे आशा है कि अगले संस्करण में इन दोनों अध्यायों की कमी पूरी हो सकेगी। मुद्रण-सामग्री के मूल-वृद्धि के कारण मैं इस पुस्तक में किसी प्रकार के चित्र भी न दे सका।
मैं प्राचीन भारत के अपने पूर्ववर्ती इतिहास-लेखकों का अत्यन्त आभारी हूँ। मैंने उनके ग्रन्थों का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया है, और इसका हिन्दी रूप कई मित्रों के प्रोत्साहन का फल है। इसलिए मैं उनका कृतज्ञ हूँ। मैं पुत्री कुमारी हेमप्रभा त्रिपाठी तथा पुत्र गिरिजाशंकर त्रिपाठी को भी इसके निर्माण में सहायता देने के हेतु धन्यवाद देता हूँ।
यद्यपि इस पुस्तक में प्रत्येक विषय की सरल, सुबोध और संक्षेपतः व्यापक बनाने की पूरी चेष्टा की गई है तथापि पर्याप्त तत्परता पर भी यदि पाठकों की सूक्ष्म दृष्टि में किसी प्रकार की त्रुटि दिखलाई पड़े तो मैं उसका सहर्ष स्वागत करूँगा। प्रतिपादित विषय अत्यन्त एवं गम्भीर है। अतः इस ग्रन्थ की रचना के समय मुझे महाकवि कालिदास का प्रसिद्ध श्लोक प्रायः स्मरण आता हैः
क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः।
तितीर्पुर्दुस्तरं मोहाढुडुपेनास्मि सागरम्
तितीर्पुर्दुस्तरं मोहाढुडुपेनास्मि सागरम्
रमाशंकर त्रिपाठी
खंड 1
अध्याय 1
प्रवेशक 1
सामग्री 1
इतिहास का अभाव
प्राचीन भारतीय वाड़्मय विशद और समृद्ध होता हुआ भी इतिहास की सामग्री में
अत्यन्त न्यून है। समूचे ब्राह्मण, और बौद्ध और जैन साहित्य में एक भी
ग्रंथ ऐसा नहीं जो लिवी (Livy) के समक्ष ‘एनल्स’ (Annals)
अथवा हेरोदोतम् (Herodotus) के ‘हिस्टरीज़’ (Histories)
के समक्ष रखा जा सके। इसका कारण यह नहीं है कि भारत का अतीत स्मरणीय
घटनाओं में सर्वथा शून्य रहा है। बल्कि सिद्ध तो यह है कि उसके अतीत के
युग वीरकृत्यों और राजकुमारों और राजकुलों के उत्थान-पतन से पूरित रहे हैं
परन्तु आश्चर्य है कि इन स्तुत्य घटनाओं का तिथिपरक उचित अंकन क्यों नहीं
हुआ। संभव है कि कमी रही हो; संभव है इसका कारण साहित्य के प्रति उन
सम्प्रदायों की उदासीनता रही हो जिनका भारतीय साहित्यों के निर्माण और
विकास में काफी हाथ रहा है, और जिन्होंने इस प्रकार के पार्थिक क्षणभंगुर
प्रयास को सदा अश्रद्धा से देखा है। पर यह सत्य है कि प्राचीन भारतीय
इतिहास के अनुशीलन में वैज्ञानिक ऐतिहासिक ग्रंथों का अभाव अवधारणा बाधक
है1।
प्राचीन भारतीय इतिहास की सामग्री मोटे तौर से दो भागों में बांटी जा सकती है- (1) साहित्यिक, और (2) पुरातत्त्व-संबंधी। इन दोनों के भी भारतीय और अभारतीय दो विभाग किए जा सकते हैं2। पहले हम साहित्यिक सामग्री पर विचार करेंगे।
1. देखिए, अल्बेरुनीः ‘‘हिन्दू घटनाओं के ऐतिहासिक क्रम के प्रति उदासीनता हैं। तिथि के अनुक्रम के सम्बन्ध में वे अत्यन्त लापरवाह हैं। जब-जब उनसे कोई ऐसी बात पूछी जाती है जिसका वे उत्तर नहीं दे पाते तब-तब वे कहानियाँ पढ़ने लगते हैं’’। (सचाउ, अल्बेरुनी का भारत, खण्ड 2, पृ० 10)
2. देखिये, The Imperial Gazetteer of India खण्ड 2 (आक्सफोर्ड, 1909) पृ० 1 से आगे।
प्राचीन भारतीय इतिहास की सामग्री मोटे तौर से दो भागों में बांटी जा सकती है- (1) साहित्यिक, और (2) पुरातत्त्व-संबंधी। इन दोनों के भी भारतीय और अभारतीय दो विभाग किए जा सकते हैं2। पहले हम साहित्यिक सामग्री पर विचार करेंगे।
1. देखिए, अल्बेरुनीः ‘‘हिन्दू घटनाओं के ऐतिहासिक क्रम के प्रति उदासीनता हैं। तिथि के अनुक्रम के सम्बन्ध में वे अत्यन्त लापरवाह हैं। जब-जब उनसे कोई ऐसी बात पूछी जाती है जिसका वे उत्तर नहीं दे पाते तब-तब वे कहानियाँ पढ़ने लगते हैं’’। (सचाउ, अल्बेरुनी का भारत, खण्ड 2, पृ० 10)
2. देखिये, The Imperial Gazetteer of India खण्ड 2 (आक्सफोर्ड, 1909) पृ० 1 से आगे।
साहित्यिक सामग्री
अनैतिहासिक ग्रन्थ
भारत का प्राचीनतम साहित्य सर्वथा धार्मिक है। विद्वानों ने फिर भी
अत्यन्त धैर्य और अव्यवसाय से उस साहित्य-सागर से बिन्दु-बिन्दु इतिहास
बटोरा है। उदाहरणः, वेदों- विशेषकर ‘ऋग्वेद’-से भारत में
आर्यों के प्रसार, उनके अन्तः- संघर्ष, और दस्युओं के विरुद्ध युद्धों तथा
इस प्रकार के अन्य विषयों पर ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध हुई है। इसी प्रकार,
ब्राह्मणों (ऐतरेय, पंचविंश, शतपथ, तैत्तिरीय आदि) और उपनिषदों
(बृहदारण्यक, छान्दोग्यादि), बौद्धपिटकों (विनय, सुत्त1अभिधम्म), जो पाली
में है, तथा संस्कृत में लिखे बौद्ध ग्रन्थों (महावस्तु, ललित-विस्तर,
बुद्धचरित, दिव्यावदान, लंकावतार, सद्धर्मपुंडरीक), तथा जैनसूत्रों
(आचाराग्ड़सूत्र, सूत्रकृताग्ड़, उत्तराध्ययन, कल्पसूत्र, आदि)2 में भी
ऐसी सामग्री निहित है जिससे इतिहास की काया सँवारी जा सकती है। आधुनिक
वैज्ञानिक खोज ने ‘गार्गी-संहिता’ के से ज्योतिष-ग्रन्थ और
कालिदास3, भास की साहित्यिक रचनाओं तथा पुरनानूरु, मणिमेकलाई,
शिलप्पदिकारम्, तिरुक्कुरल ऐसे तामिल ग्रन्थों तक से ऐतिहासिक सामग्री
संकलित की है। पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ के सूत्रों और भाष्यों
तक से इस प्रकार की सामग्री आकृष्ट हुई है; यह निस्सन्देह इस वैज्ञानिक
इतिहासकारिता का चमत्कार है। परन्तु यद्यपि ये साधन बहुमूल्य और सम्मान्य
हैं उनसे प्रस्तुत निष्कर्ष यथेष्ट नहीं निकलता।
इतिहासपरक साहित्य
अब हम उन ग्रन्थों की ओर संकेत करेंगे जिनकी गणना ऐतिहासिक
साहित्य में होती है और जिनमें इतिहास के मूल-तत्त्व हैं। हमारा तात्पर्य
‘रामायण’ और ‘महाभारत’ से है। इन
महाकाव्यों में हिन्दुओं ने प्राचीन घटनाओं को क्रमबद्ध करने का प्राथमिक
ध्यान की वंश तथा गोत्रप्रवर सूचियों और आख्यान, गाथा, नाराशंसी, इतिहास,
पुराण आदि में पड़ चुका था। इसमें सन्देह नहीं कि इन प्रबन्ध-काव्यों में
भारत की तात्कालिक धार्मिक और सामाजिक स्थितियों का रुचिकर संग्रह हुआ है।
परन्तु राजनैतिक घटनाओं के क्रमबद्ध इतिहास के रूप में ये नितान्त
असन्तोषप्रद हैं।
1. सुत्तपिटक पाँच निकायों में विभक्त है- दीघ, मज्झिम, संयुक्त, अङ्गुत्तर, तथा खुद्दक। खुद्दकनिकाय में धम्मपद, उदान, इतिवुत्तक, सुत्तनिपात, विमानवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा, जातक इत्यादि भी सम्मिलित हैं।
2. इन ग्रन्थों के प्राकृत नाम हैं- आयारांग-सुत्त, सूयगडांग, उत्तराज्झयन। कल्पसूत्र भद्र-बाहुकृत आयारदसाओं (दशश्रुतस्कन्ध) का आठवाँ परिच्छेद है। ये ग्रन्थ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के हैं। दिगम्बर जैन भी 12 अंग मानते हैं। हाल में उनके षड्खण्डागम तथा कषायपाहुड़ आदि मान्य ग्रंथ प्रकाशित हुये हैं। तत्वार्थाधिगम-सूत्रों को दोनों सम्प्रदाय मानते हैं, यद्यपि वह जैन सिद्धान्त का अग्ङ नहीं समझा जाता है।
3. देखिये, श्री उपाध्यायः India in Kalidasa, किताबिस्तान, प्रयाग। तिथिपरक विकृतियों और कल्पित कथाओं से तो काफी भरे हैं। इन महाकाव्यों के पश्चात् ‘पुराणों का स्थान है जो संख्या में अठारह हैं और जो सूत लोमहर्षण अथवा इनके पुत्र (सौति) उग्रश्रवस द्वारा ‘कथिक’ माने जाते हैं1। साधारणतः उनके वर्णित विषय पाँच प्रकार के हैं। (1) सर्ग (आदि सृष्टि, (2) प्रतिसर्ग (काल्पिक प्रलय के पश्चात् पुनः सृष्टि), (3) वंश (देवताओं और ऋषियों के वंशवृक्ष), (4) मन्वन्तर (कल्पों के युग जिनमें जाति का पहला जनक मनु है) और (5) वंशानुचरित (प्राचीन राजकुलों का इतिवृत्त)2। इनमें केवल अन्तिम-वंशानुचरित मात्र ऐतिहासिक महत्व का है, परन्तु अभाग्यवश यह प्रकरण केवल भविष्य, मत्स्य, वायु, ब्रह्माण, विष्णु और भागवत पुराणों में ही मिलता है3। इस, प्रकार इन प्राचीन आनुश्रुतिक संहिताओं में से अनेक तो ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वथा निरर्थक हैं। और जो कुछ हैं वह भी अधिकतर पुराणपरक हैं और उनका तिथिक्रम नितान्त उलझा हुआ है। कभी तो वे सम-सामयिक राजकुलों अथवा राजाओं का आनुक्रमिक वर्णन करते हैं, कभी वे कुछ को सर्वथा छोड़ ही देते हैं (उदाहरणतः, पुराणों में भारतीय-पह्यव, कुषाणों आदि का वर्णन नहीं मिलता)। तिथियाँ तो दी ही नहीं गई हैं। अनेक प्रकार राजाओं के नामों में भी भयंकर भूलें हुई हैं (उदाहरणार्थ आन्ध्र राजाओं की सूची)। इतना होने पर भी पुराणों में काम की सामग्री है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती4। पुराण उस अन्धकूप में आलोक-रश्मि का काम करते हैं।
पुराणों के अतिरिक्त साहित्य के कुछ और ग्रंथ भी इस संबंध में उपादेय सिद्ध हुए हैं। इनमें से विशिष्ट निम्नलिखित हैं: बाण का ‘हर्षचरित्र’, सन्ध्याकरनन्दी का ‘रामचरित’, आन्नद भट्ट का ‘वल्लालचरित’, पद्यगुप्त का ‘नवसाहसांकचरित’, बिल्हण का ‘विक्रमांकदेवचरित’, जयानक का ‘पृथ्वीराज विजय’, और सोमेश्वर की ‘कीर्तिकौमुदी’ आदि। अभाग्यतः इन चरितों’ में ऐतिहासिक अंश अत्यन्त स्वल्प है। ये मूलतः काव्यपरक हैं और इनमें स्वभावतया अलंकारों, उपमानों आदि का अधिकाधिक समावेश है। संस्कृति साहित्य में कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ एकमात्र ग्रन्थ है जिसे हम अपने अर्थ में इतिहास का निकटतम प्रयास कह सकते हैं। इसकी रचना 1148 ई० में प्रारम्भ हुई थी। इसके ऐतिहासिक आधार इतिहास सुव्रत, क्षेमेन्द्र,
1. विष्णुपुराण पराशर द्वारा मैत्रेय को सुनाया गया था, किन्तु अन्य सब पुराण नैमिषारण्य में ऋषियों के द्वादशवर्षयज्ञ के अवसर पर सूत द्वारा कथित माने जाते हैं (पार्जिटर, Dynasties of the Kali Age, Introduction पृ० viii) पुराणों में सूत के नाम में भेद है (वहीं, नोट 5)।
2. सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वंतराणि च
वंशानुचरितञ्चैव पुराणं पंचलक्षणम्।।
3. गरुड पुराण में भी, जिसकी तिथि अनिश्चित है, पौरव ऐश्वाक तथा बार्हद्रथ वंशों की सूची मिलती है।
4. इस सम्बन्ध में गेटे (Goethe) का वक्तव्य स्वाभाविक स्मरण हो आता हैः-
‘‘इतिहासकार का कर्तव्य मिथ्या से सत्य को, अनिश्चित से निश्चित को अग्राह्म से सन्दिग्ध को पृथक् कर देना है।’’ maxims नं- 453
हेलाराज, पद्यमिहिर, नीलमुनि आदि की पूर्वरचनाएँ, राजकीय शासन-पत्र और प्रशस्तियाँ हैं। कल्हण का यह इतिहास अपने रचना-काल के सन्निकट-पूर्व की शताब्दियों के सम्बन्ध में प्रचुर प्रामाण्य है परन्तु और प्राचीन घटनाओं के सम्बन्ध में उसने भी पुराणपन्थी रास्ता नापा है।
इनके अतिरिक्त कुछ तामिल तथा पाली और प्राकृत ग्रन्थ भी हैं जिनका इस संबंध में निर्देश किया जा सकता है। ‘नन्दिक्कलम्बकम’ ओहकत्तन का ‘कुलोत्तुंगन-पिल्लैतमिल’ जयगोन्डार का ‘कलिगत्तुपरणी’ ‘राजराज-शोलन्उला, चोडवंश-चरितम् आदि इसी प्रकार के कुछ ग्रन्थ हैं। मिलिन्दपन्हो (मिलिन्दप्रश्न) तथा सिंहली पाली इतिहास ‘दीपवंश’ (चौथी शती ईस्वी) और महानामन् लिखित महावंश (छठी शती ईस्वी) में भी बिखरी राजनैतिक सामग्री मिल जाती है। वाक्पतिराज का ‘गउडवहो, और हेमचन्द्र का ‘कुमारपालचरित’ आदि पाकृत ग्रन्थ भी इस सम्बन्ध में उपादेय होंगे।
अभारतीय साहित्य
विदेशी लेखकों और भ्रमकों के वृत्तान्त भी इस दिशा में कम महत्त्व नहीं रखते है। इनका भारतविषयक ज्ञान सुने और वृत्तान्तों अथवा स्वयं देखी हुई अवस्था पर अवलम्बित है। इनमें से अनेक भ्रमक इस देश में आए और ठहरे थे। इनमें अनेक जातियों में पर्यटक और लेखक-ग्रीक, रोमन, चीनी, तिब्बती और मुस्लिम शामिल हैं।
इनमें प्राचीनतम लेखक ग्रीक हेरोडोटस (Herodotus-484-425 ईसा-पर्व) है। उसने पांचवी शती ई० पृ० के भारतीय सीमाप्रान्त और हखमी (Achaemenai ईरानी) साम्राज्य के राजनैतिक संपर्क पर प्रकाश डाला है। ईरानी के सम्राट् आर्टजेरेक्सस मेमेन (Artaxerxes Mnemon) के राजवैद्य टेशियस (Ktesias) ने भी भारत के सम्बन्ध में कुछ लिखा है। इसके अतिरिक्त सिकंदर (Alexander) कई ग्रीक साथियों ने भारत पर लिखने का प्रयास किया है। इनमें मुख्य हैं
निया-कर्स (Nearchus) आनिसिक्राइटुस (Onesicritus) और अरिस्टोबुलुस यद्यपि इनके लेख अब रोमन लेखकों ने किया है। इनमें उल्लेख्य हैं क्विन्टल कर्टियस (Ouintus Curtius), स्ट्रोवो डियोडोरस सिकुलर (Diodorus Siculus) , एरियन (Arrian स्ट्रोवो (Strabo), प्लूटार्क (Plutarch) आदि। इन लेखकों के वृत्तान्तों के महत्व का अटकल इससे ही लगाया जा सकता है कि यदि इनके लेख आज प्रस्तुत न होते तो हम उस अप्रतिम मकदुनियाई आक्रमण की बात किसी प्रकार भी न जान पाते। भारतीय साहित्य इस प्रसंग में सर्वथा मौन है। सीरिया के सम्राट सिल्यूकस (Seleukos) का
राजपूत मेगस्थानीय (Megasthenes) चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में वर्षों रहा था। उसने भी अपनी पुस्तक ‘इण्डिया’ में भारतीय संस्थाओं, भूगोल और कृषि-फल आदि के विषय में काफी लिखा है। स्वयं यह पुस्तक तो अब उपलब्ध नहीं है परन्तु इसके अनेक लम्बे अवतरण एरियन, अप्पियन, स्ट्रेबो, जस्टियन आदि के ग्रंथों में आज भी सुरक्षित हैं। इसी प्रकार
‘इरिथ्रियन सागर का पेरिप्लस’ और क्याडियस टालेमी (Kalaudios Ptolemy)का ‘भूगोल’ भी महत्त्वपूर्ण हैं जिनसे प्राचीन भारतीय व्यापार और भूगोल पर प्रकाश पड़ता है। प्लिनी (Pliny), 23 ई०-79 ई) की ‘नेचुरल हिस्टरी’ तथा ईजिप्ट के मठधारी कासमस इंडिकोप्लुस्टस (Cosmos Indicopleustes)जो 547 ई० में भारत आय़ा था, उसके द्वारा लिखित ‘क्रिश्चियन टोपोग्राफी ग्राफ दि यूनिवर्स’ (The Christian Topography of the Universe ही हमारे लिए उपयोगी पुस्तकें हैं।
ग्रीक और रोमन ग्रन्थों की ही भांति चीनी साहित्य से भी भारतीय इतिहास के निर्माण में बड़ी मदद मिलती है। इसमें उन अनेक मध्य एशियाई जातियों के परिभ्रमण का हवाला दिया जाता है जिन्होंने भारतीय ऐतिह्य को भले प्रकार से प्रभा-वित किया था। शु-मा-चीन ईसा पूर्व (S-Su-Ma Chien-100)1 चीन का प्रथम इतिहास लेखक है जिससे हमको इस सम्बन्ध में कुछ सामग्री मिलती है। चीनी साहित्य में फ़ाह्मान के प्रख्यात वृत्तान्त् है।
ये तीन उन प्रसिद्ध चीनी यात्रियों में मुख्य थे जो ज्ञान की खोज और बुद्ध के सम्पर्क में पावक स्थलों के दर्शनार्थ भारत आए थे। हुई-ली (Hwui- Li) रचित युवान् च्वांग की ‘जीवनी’ (Life) तथा मात्वानलिन (Ma-twan-ti -13 वीं शती) की कृतियों में भी हमको बहुत कुछ मालूम होता है। तिब्बती लामा तारानाथ के ग्रन्थ’, कंम्युर और तंग्युर आदि भी कुछ कम महत्त्व के नहीं हैं3।
इसके पश्चात् मुस्लिम पर्यटकों के वत्तान्त् भी ऐतिहासिक महत्त्व के हैं। इनके लेखों से पता चलता है कि किस प्रकार इस्लाम की सेनाओं ने धीरे-धीरे भारत पर अधिकार कर भारतीय राजनीति में एक नई व्यवस्था प्रस्तुत कर दी। इन मुस्लिम लेखकों में प्रमुख स्थान आल्बेरूनी का है। उनकी प्रतिमा सर्वतोमुखी थी और संस्कृति का भी वह असाधारण पण्डित था।
महमूद के आक्रमणों में वह उसके साथ था। 1030 ई० में उसने अपना ‘तहक़ीकए-हिन्द’ (तारीख-उलहिन्द) में लिखा है। अल्लेरूनी से भी प्राचीन मुस्लिम लेखकों अल्-बिलादुरी (किताब फुतूह अल्-ज़हाब) थे। अन्य मुस्लिम ग्रन्थों में निम्न मुख्य हैं-
अल इस्तखरी का ‘किताब उल अकालून’ इब्न हौकल का ‘अस्क्राल-उल-विलाद’, अल उतबी का ‘तारीखए-यमीन’, मिनहाजुद्दीन का ‘तबक़ात-ए-नसीरी’ न्ज़ामिद्दीन का ‘तबादला-ए-अकबरी’, हसन निज़ीमी का ‘ताज- उल् मआसिर’, इब्न-उल-अथिर का ‘अल तारीख-उल्-कामिल’, फिरिश्ता का ‘तारीख-ए-फरिश्ता’, मीर-
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1. देखिए, ‘फ़ो-क्वो-की’
2.देखिए, ‘सी-यू-की
1. सुत्तपिटक पाँच निकायों में विभक्त है- दीघ, मज्झिम, संयुक्त, अङ्गुत्तर, तथा खुद्दक। खुद्दकनिकाय में धम्मपद, उदान, इतिवुत्तक, सुत्तनिपात, विमानवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा, जातक इत्यादि भी सम्मिलित हैं।
2. इन ग्रन्थों के प्राकृत नाम हैं- आयारांग-सुत्त, सूयगडांग, उत्तराज्झयन। कल्पसूत्र भद्र-बाहुकृत आयारदसाओं (दशश्रुतस्कन्ध) का आठवाँ परिच्छेद है। ये ग्रन्थ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के हैं। दिगम्बर जैन भी 12 अंग मानते हैं। हाल में उनके षड्खण्डागम तथा कषायपाहुड़ आदि मान्य ग्रंथ प्रकाशित हुये हैं। तत्वार्थाधिगम-सूत्रों को दोनों सम्प्रदाय मानते हैं, यद्यपि वह जैन सिद्धान्त का अग्ङ नहीं समझा जाता है।
3. देखिये, श्री उपाध्यायः India in Kalidasa, किताबिस्तान, प्रयाग। तिथिपरक विकृतियों और कल्पित कथाओं से तो काफी भरे हैं। इन महाकाव्यों के पश्चात् ‘पुराणों का स्थान है जो संख्या में अठारह हैं और जो सूत लोमहर्षण अथवा इनके पुत्र (सौति) उग्रश्रवस द्वारा ‘कथिक’ माने जाते हैं1। साधारणतः उनके वर्णित विषय पाँच प्रकार के हैं। (1) सर्ग (आदि सृष्टि, (2) प्रतिसर्ग (काल्पिक प्रलय के पश्चात् पुनः सृष्टि), (3) वंश (देवताओं और ऋषियों के वंशवृक्ष), (4) मन्वन्तर (कल्पों के युग जिनमें जाति का पहला जनक मनु है) और (5) वंशानुचरित (प्राचीन राजकुलों का इतिवृत्त)2। इनमें केवल अन्तिम-वंशानुचरित मात्र ऐतिहासिक महत्व का है, परन्तु अभाग्यवश यह प्रकरण केवल भविष्य, मत्स्य, वायु, ब्रह्माण, विष्णु और भागवत पुराणों में ही मिलता है3। इस, प्रकार इन प्राचीन आनुश्रुतिक संहिताओं में से अनेक तो ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वथा निरर्थक हैं। और जो कुछ हैं वह भी अधिकतर पुराणपरक हैं और उनका तिथिक्रम नितान्त उलझा हुआ है। कभी तो वे सम-सामयिक राजकुलों अथवा राजाओं का आनुक्रमिक वर्णन करते हैं, कभी वे कुछ को सर्वथा छोड़ ही देते हैं (उदाहरणतः, पुराणों में भारतीय-पह्यव, कुषाणों आदि का वर्णन नहीं मिलता)। तिथियाँ तो दी ही नहीं गई हैं। अनेक प्रकार राजाओं के नामों में भी भयंकर भूलें हुई हैं (उदाहरणार्थ आन्ध्र राजाओं की सूची)। इतना होने पर भी पुराणों में काम की सामग्री है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती4। पुराण उस अन्धकूप में आलोक-रश्मि का काम करते हैं।
पुराणों के अतिरिक्त साहित्य के कुछ और ग्रंथ भी इस संबंध में उपादेय सिद्ध हुए हैं। इनमें से विशिष्ट निम्नलिखित हैं: बाण का ‘हर्षचरित्र’, सन्ध्याकरनन्दी का ‘रामचरित’, आन्नद भट्ट का ‘वल्लालचरित’, पद्यगुप्त का ‘नवसाहसांकचरित’, बिल्हण का ‘विक्रमांकदेवचरित’, जयानक का ‘पृथ्वीराज विजय’, और सोमेश्वर की ‘कीर्तिकौमुदी’ आदि। अभाग्यतः इन चरितों’ में ऐतिहासिक अंश अत्यन्त स्वल्प है। ये मूलतः काव्यपरक हैं और इनमें स्वभावतया अलंकारों, उपमानों आदि का अधिकाधिक समावेश है। संस्कृति साहित्य में कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ एकमात्र ग्रन्थ है जिसे हम अपने अर्थ में इतिहास का निकटतम प्रयास कह सकते हैं। इसकी रचना 1148 ई० में प्रारम्भ हुई थी। इसके ऐतिहासिक आधार इतिहास सुव्रत, क्षेमेन्द्र,
1. विष्णुपुराण पराशर द्वारा मैत्रेय को सुनाया गया था, किन्तु अन्य सब पुराण नैमिषारण्य में ऋषियों के द्वादशवर्षयज्ञ के अवसर पर सूत द्वारा कथित माने जाते हैं (पार्जिटर, Dynasties of the Kali Age, Introduction पृ० viii) पुराणों में सूत के नाम में भेद है (वहीं, नोट 5)।
2. सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वंतराणि च
वंशानुचरितञ्चैव पुराणं पंचलक्षणम्।।
3. गरुड पुराण में भी, जिसकी तिथि अनिश्चित है, पौरव ऐश्वाक तथा बार्हद्रथ वंशों की सूची मिलती है।
4. इस सम्बन्ध में गेटे (Goethe) का वक्तव्य स्वाभाविक स्मरण हो आता हैः-
‘‘इतिहासकार का कर्तव्य मिथ्या से सत्य को, अनिश्चित से निश्चित को अग्राह्म से सन्दिग्ध को पृथक् कर देना है।’’ maxims नं- 453
हेलाराज, पद्यमिहिर, नीलमुनि आदि की पूर्वरचनाएँ, राजकीय शासन-पत्र और प्रशस्तियाँ हैं। कल्हण का यह इतिहास अपने रचना-काल के सन्निकट-पूर्व की शताब्दियों के सम्बन्ध में प्रचुर प्रामाण्य है परन्तु और प्राचीन घटनाओं के सम्बन्ध में उसने भी पुराणपन्थी रास्ता नापा है।
इनके अतिरिक्त कुछ तामिल तथा पाली और प्राकृत ग्रन्थ भी हैं जिनका इस संबंध में निर्देश किया जा सकता है। ‘नन्दिक्कलम्बकम’ ओहकत्तन का ‘कुलोत्तुंगन-पिल्लैतमिल’ जयगोन्डार का ‘कलिगत्तुपरणी’ ‘राजराज-शोलन्उला, चोडवंश-चरितम् आदि इसी प्रकार के कुछ ग्रन्थ हैं। मिलिन्दपन्हो (मिलिन्दप्रश्न) तथा सिंहली पाली इतिहास ‘दीपवंश’ (चौथी शती ईस्वी) और महानामन् लिखित महावंश (छठी शती ईस्वी) में भी बिखरी राजनैतिक सामग्री मिल जाती है। वाक्पतिराज का ‘गउडवहो, और हेमचन्द्र का ‘कुमारपालचरित’ आदि पाकृत ग्रन्थ भी इस सम्बन्ध में उपादेय होंगे।
अभारतीय साहित्य
विदेशी लेखकों और भ्रमकों के वृत्तान्त भी इस दिशा में कम महत्त्व नहीं रखते है। इनका भारतविषयक ज्ञान सुने और वृत्तान्तों अथवा स्वयं देखी हुई अवस्था पर अवलम्बित है। इनमें से अनेक भ्रमक इस देश में आए और ठहरे थे। इनमें अनेक जातियों में पर्यटक और लेखक-ग्रीक, रोमन, चीनी, तिब्बती और मुस्लिम शामिल हैं।
इनमें प्राचीनतम लेखक ग्रीक हेरोडोटस (Herodotus-484-425 ईसा-पर्व) है। उसने पांचवी शती ई० पृ० के भारतीय सीमाप्रान्त और हखमी (Achaemenai ईरानी) साम्राज्य के राजनैतिक संपर्क पर प्रकाश डाला है। ईरानी के सम्राट् आर्टजेरेक्सस मेमेन (Artaxerxes Mnemon) के राजवैद्य टेशियस (Ktesias) ने भी भारत के सम्बन्ध में कुछ लिखा है। इसके अतिरिक्त सिकंदर (Alexander) कई ग्रीक साथियों ने भारत पर लिखने का प्रयास किया है। इनमें मुख्य हैं
निया-कर्स (Nearchus) आनिसिक्राइटुस (Onesicritus) और अरिस्टोबुलुस यद्यपि इनके लेख अब रोमन लेखकों ने किया है। इनमें उल्लेख्य हैं क्विन्टल कर्टियस (Ouintus Curtius), स्ट्रोवो डियोडोरस सिकुलर (Diodorus Siculus) , एरियन (Arrian स्ट्रोवो (Strabo), प्लूटार्क (Plutarch) आदि। इन लेखकों के वृत्तान्तों के महत्व का अटकल इससे ही लगाया जा सकता है कि यदि इनके लेख आज प्रस्तुत न होते तो हम उस अप्रतिम मकदुनियाई आक्रमण की बात किसी प्रकार भी न जान पाते। भारतीय साहित्य इस प्रसंग में सर्वथा मौन है। सीरिया के सम्राट सिल्यूकस (Seleukos) का
राजपूत मेगस्थानीय (Megasthenes) चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में वर्षों रहा था। उसने भी अपनी पुस्तक ‘इण्डिया’ में भारतीय संस्थाओं, भूगोल और कृषि-फल आदि के विषय में काफी लिखा है। स्वयं यह पुस्तक तो अब उपलब्ध नहीं है परन्तु इसके अनेक लम्बे अवतरण एरियन, अप्पियन, स्ट्रेबो, जस्टियन आदि के ग्रंथों में आज भी सुरक्षित हैं। इसी प्रकार
‘इरिथ्रियन सागर का पेरिप्लस’ और क्याडियस टालेमी (Kalaudios Ptolemy)का ‘भूगोल’ भी महत्त्वपूर्ण हैं जिनसे प्राचीन भारतीय व्यापार और भूगोल पर प्रकाश पड़ता है। प्लिनी (Pliny), 23 ई०-79 ई) की ‘नेचुरल हिस्टरी’ तथा ईजिप्ट के मठधारी कासमस इंडिकोप्लुस्टस (Cosmos Indicopleustes)जो 547 ई० में भारत आय़ा था, उसके द्वारा लिखित ‘क्रिश्चियन टोपोग्राफी ग्राफ दि यूनिवर्स’ (The Christian Topography of the Universe ही हमारे लिए उपयोगी पुस्तकें हैं।
ग्रीक और रोमन ग्रन्थों की ही भांति चीनी साहित्य से भी भारतीय इतिहास के निर्माण में बड़ी मदद मिलती है। इसमें उन अनेक मध्य एशियाई जातियों के परिभ्रमण का हवाला दिया जाता है जिन्होंने भारतीय ऐतिह्य को भले प्रकार से प्रभा-वित किया था। शु-मा-चीन ईसा पूर्व (S-Su-Ma Chien-100)1 चीन का प्रथम इतिहास लेखक है जिससे हमको इस सम्बन्ध में कुछ सामग्री मिलती है। चीनी साहित्य में फ़ाह्मान के प्रख्यात वृत्तान्त् है।
ये तीन उन प्रसिद्ध चीनी यात्रियों में मुख्य थे जो ज्ञान की खोज और बुद्ध के सम्पर्क में पावक स्थलों के दर्शनार्थ भारत आए थे। हुई-ली (Hwui- Li) रचित युवान् च्वांग की ‘जीवनी’ (Life) तथा मात्वानलिन (Ma-twan-ti -13 वीं शती) की कृतियों में भी हमको बहुत कुछ मालूम होता है। तिब्बती लामा तारानाथ के ग्रन्थ’, कंम्युर और तंग्युर आदि भी कुछ कम महत्त्व के नहीं हैं3।
इसके पश्चात् मुस्लिम पर्यटकों के वत्तान्त् भी ऐतिहासिक महत्त्व के हैं। इनके लेखों से पता चलता है कि किस प्रकार इस्लाम की सेनाओं ने धीरे-धीरे भारत पर अधिकार कर भारतीय राजनीति में एक नई व्यवस्था प्रस्तुत कर दी। इन मुस्लिम लेखकों में प्रमुख स्थान आल्बेरूनी का है। उनकी प्रतिमा सर्वतोमुखी थी और संस्कृति का भी वह असाधारण पण्डित था।
महमूद के आक्रमणों में वह उसके साथ था। 1030 ई० में उसने अपना ‘तहक़ीकए-हिन्द’ (तारीख-उलहिन्द) में लिखा है। अल्लेरूनी से भी प्राचीन मुस्लिम लेखकों अल्-बिलादुरी (किताब फुतूह अल्-ज़हाब) थे। अन्य मुस्लिम ग्रन्थों में निम्न मुख्य हैं-
अल इस्तखरी का ‘किताब उल अकालून’ इब्न हौकल का ‘अस्क्राल-उल-विलाद’, अल उतबी का ‘तारीखए-यमीन’, मिनहाजुद्दीन का ‘तबक़ात-ए-नसीरी’ न्ज़ामिद्दीन का ‘तबादला-ए-अकबरी’, हसन निज़ीमी का ‘ताज- उल् मआसिर’, इब्न-उल-अथिर का ‘अल तारीख-उल्-कामिल’, फिरिश्ता का ‘तारीख-ए-फरिश्ता’, मीर-
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1. देखिए, ‘फ़ो-क्वो-की’
2.देखिए, ‘सी-यू-की
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